स्वामी निगमानंद की करीब चार महीनों से जारी अनशन से हुई मौत जहां राजनेताओं के चरित्र को उजागर करती है। वहीं भ्रष्टाचार से मुक्ति केे लिए ढ़ोल पीट रहे समाजिक कार्यकार्ताओं की भी पोल खोल दी है। गंगा में अवैध उत्खनन के विरोध में अनशन कर रहे युवा सन्यासी की आखिर समाज ने क्यों सुध नहीं ली। क्या यह कहना गलत होगा कि समाज से संवेदना लुप्त होती जा रही है। निगमानंद के संदर्भ में जहां राजसत्ता अपने राष्टधर्म को नहीं निभा पायी वहीं समाज भी अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकता। यद्यपि मीडिया के माध्यम से हीं निगमानंद जी के मौत के बारे में हम जानकारी पाए लेकिन मीडिया ने भी निगमानंदजी के अनशन को वैसे नहीं लिया जैसा कि लिया जाना चाहिए था। अच्छा तो यह होता कि मीडिया में इस लो प्रोफाइल केस को अच्छा कवरेज मिलता। आखिर क्यों सामाजिक कार्यकर्ताओं ने उन्हें अपना समर्थन नहीं दिया । क्या यह मुद्दा सामाजिक सरोकार से जुड़ा नहीं था ? आखिर क्यों नहीं लोगों ने इसमें वैसी रूची दिखायी जैसा कि रामदेवजी एवं अन्ना हजारे के आंदोलनों में दिखाया गया। आखिर किसकी गलती से यह युवा सन्यासी असमय मौत के मुंह में चला गया। आखिर मोरारी बाबू एवं श्री रविशंकर ने इस युवा सन्यासी की सुध क्यों नहीं ली। अच्छा तो यह होता कि रामदेव जीे के साथ इस युवा सन्यासी से मोरारी बाबू एवं श्री श्री मिलते। उत्तराखंड सरकार ने आखिर निगमानंद जी को वैसी चिकित्सा सुविधा क्यों नहीं उपलब्ध कराई जैसा कि रामदेवजी को किया गया। मेरे यह कहने का मतलब यह नहीं है कि रामदेवजी को उच्चस्तरीय सुविधाएं नहीं उपलब्ध कराई जानी चाहिये या अन्ना हजारे एवं रामदेवजी ने भ्रष्टाचार के विरूद्व मुहिम छोड़कर कोई अपाराध किया है। बल्कि मेरे कहने का मतलब यह है इस देश में कृष्ण -सुदामा को एक नजर से देखा जाए। खासकर संत समाज एवं सामाजिक कार्यकर्ताओं से ऐसी अपेक्षा तो की हीं जा सकती है। रामदेवजी का योग के क्षेत्र में योगदान महत्वपूर्ण है लेकिन वीआईपी के लिए आमजनों की उपेक्षा नहीं होनी चाहिए । हकीकत यह है कि अगर राजनीतिक इच्छा शक्ति होती तो कोर्ट के फैसले का सम्मान करते हुए भी इस समस्या हल निकाला जा सकता था।
अब जब निगमानंद को जहर देकर मारने की बात सामने आ रही है। तो सरकार कर्तव्य बनता है कि वह इस मामले की उच्चस्तरीय जांच कराए और दोषियों को सख्त सजा सुनिश्चित करे।
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