सोमवार, 31 जनवरी 2011

जूतों की मार मुझे है स्वीकार

बड़बोलनगुरू आज काफी खुष थे। यद्यपि अस्पताल के बेड़ पर पड़े थे लेकिन फुलकर कप्ुपा हुए जा रहे थे। मैं भी उनके खुषी में षामिल होने के लिए अस्पताल पहुंचा। देखा मंुह धुधुन फोरकर गुरू बेड़ पर उछल-कुद कर रहे हैं। मैंने सहानुभूति की बाढ लाते हुए पुछा। गुरू आपकी यह हालत किसने की। कहीं भाभी जी के साथ महासंग्राम तो फिर नहीं हुआ है। तो बोले यार तुम एकदम घोंपू का घोंपू रह गये हो। इनके द्वारा की जा रही आवाभगत को देखकर भी तुम्हें यह लग रहा है आज भी इन्होंने हीं मेरी यह दषा की है। तुम तो जानते हो संग्राम के बाद तो इनका मैके गमन हो जाता है। मैने अपनी नासमझी पर अफसोस व्यक्त करते हुए कहा हां यार आज तुम्हारे और भाभी जी के प्यार को देखकर लगता है कि कहीं मैं सपना तो नहीं देख रहा हूं। फिर मैने कहा फिर बता यार तुम्हारी यह दषा किसने की। फिर उन्हों एक मीठी मुस्कान फेंकते हुए कहा अरे पोंगू तुम न्यूज-व्यूज पढते हो। क्या आज सुबह तुमने मेरी अखबार में फोटो नहीं देखी। फिर मैने अपने करीमन सेनस का प्रयोग किया और कहा कि लगता है यार तुम्हारी लाॅटरी लग गयी है और तुम मारे खुषी के मुंह-धुधन फोर लिये हो। फिर उन्होंने कहा कि अरे बुरबक अगर तुम्हारी इतनी सेंस होती तो तुम झक नहीं मारते। वो तो मेरे जैसा दीनदयाल ठहरा जो तुम्हारी कविता को झेल लेता है नही तो तुम्ही लिखते और तुम्हीं पढ़ते। मुझे भी ताव आ गया और कहा कि तुम कविता सुनकर मुझपर कोई एहसान नहीं करते हो एक सुनने के बाद अपनी ग्यारह सुनाते हो। फिर उन्होंने कहा कि रंग में भंग मत डालो और मुझे बधाई दो। मैने कहा अरे काहें को बधाई कभी तुमने मुझे बधाई दी है। उन्होंने कहा कि मैने तुम्हे इसलिए बधाई नहीं दी है क्योंकी तुमने आजतक बधाई का कोई काम हीं नहीं की। मैने कहा कि तुमने कौन सा तीर मार लिया है। भाभीजी ने बहस में हस्तक्षेप करते हुए कहा कि तुम दोनो लड़ते हीं रहोगे या जस्न भी मनाओगे। मैने भरे मन से बधाई दी कि यार तुम किस्मत वाले हो तुम्हारी लाटरी लग गई है। उन्होंने कहा कि हां यार मैं सचमुच किस्मत वाला हूं लेकिन लाॅटरी लगने से नहीं बल्कि जूता खाने से। आखिरकार मेरी वर्शो की साधना पूरी हो गई। मेरा मुंह आष्चर्य से खुला का खुला रह गया जिसमें भाभी जी ने दो- चार लड्डू घुसेड़ दिया।
फिर उन्होने सारी कथा इसप्रकार सुनायी। उन्होंने कहना षुरू किया कि देखो कवियों को गाली और ताली का कभी अकाल नहीं होता पर जूता पड़ने का सत्कार हर दम नहीं मिलता। हुआ यूं कि एक कवि सम्मेलन में मै कविता पाठ करने गया था। उक्त कवि सम्मेलन का उद्घाटन एक नेता जी को करना था। नेताजी समय पर नहीं पहुंचे जैसा की नेताओं के साथ अक्कसर होता है। भीड़ कविता सूनने के लिए बेकाबू हो रही थी। लेकिन उदघाटन के अभाव में कविता पाठ हो तो कैसे । आयोजक ने भीड़ को नियंत्रित करने के लिए मुझे यानी झकझोर कवि को बुलाया। मैने ऐसा समा बांधा कि सभा स्थल के सारे समियाने उड़ गये। भीड़ वनस् मोर वनस् मोर कहकर गरियाने लगी मैने भी अपनी सारी नयी पुरानी रचनाओं को सूना डाला।
मेरी कविता का लोगों पर ऐसा असर हुआ कि जिन्हें नीद नहीं आने की बीमारी थी उन्हें नीद आने लगी। भीड़ को मेरी कविता इतना पसंद आई कि उन्होंने कविता के साथ उसका अर्थ बताने का भी अनुरोध किया। भीड़ ने बाद में मुझसे मुक्कालात भी किया।
तभी नेताजी का लावा लष्कर के साथ आगमन हुआ। और आयोजक से लेकर मंच पर मौजूद अतिथिगण तक माला पहनाने के लिए घुड़दौड़ करने लगे। उसके बाद नेताजी ने माईक संभाला और बोलना षुरू किया। अब नेताजी का स्वागत करने की बारी जनता की आई और जनता जूता बरसा कर उनका स्वागत करने लगी। नेताजी को जनता का सत्कार इतना पसंद आया कि वहां से वह समय से पहले ही प्रस्थान कर गये। और बाकि सारे जूते मुझे खाने को कह गए। मैने भी अपने प्यारे नेता आदेष का पालन किया और एक-एक करके जूते खाये।

मैने कहा कि यार अबकीबार कवि सम्मेलन हो तो मुझे भी कविता पाठ करने को ले चलना। लेकिन तुम्हारी कविताओं में वो जान नहीं जो लोगों को मंत्रमुग्ध करदे उन्होंने कहा। नहीं है तो आ जाएगी न मै भी तुम्हारी तरह दूसरों की कविताओं को सुनाया करूंगा मैने कहा।

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